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बिखौती को ‘बुढ़ त्यार’ क्यों कहा जाता है? पढ़ें इस पर्व की हैरान कर देने वाली मान्यताएं

by news24desk
April 13, 2025
in highlight, Uttarakhand
Reading Time: 1 min read
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उत्तराखंड के कुमाऊं में आज बिखौती पर्व मनाया जा रहा है. जिसे ‘बुढ़ त्यार’ भी कहा जाता है. स्याल्दे बिखौती को चैत्र मास की अंतिम तिथि को बैसाख के पहले दिन मनाया जाता है. खेतों की नई फसल, नए साल का आगमन और विषुवत सक्रांति इन तीनों ही कारणों से ये पर्व खास हो जाता है.

बिखौती क्यों मनाते हैं ? Why do we celebrate Bikhauti?

चैत्र मास की आखिरी तारीख को, जब बैसाख की शुरुआत होती है और खेतों में नई फसलें कटती हैं, तब विषुवत संक्रांति के दिन बिखौती उत्सव मनाया जाता है। इसे “बुढ़ त्यार” भी कहा जाता है क्योंकि सूर्य के उत्तरायण में यह आखिरी बड़ा पर्व होता है.

बिखौती कैसे मनाते हैं ? How is Bikhauti celebrated?

बिखौती के दिन खेतों की नई फसलों का भोग लोक देवताओं को लगाया जाता है. जिसके बाद कुल पुरोहित आकर संवत्सर सुनाते हैं. संवत्सर मतलब साल भर का राशिफल. कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में बिखौती के दिन हरेला भी बोया जाता है. बुजुर्ग लोहे की गर्म छड़ को बच्चों के शरीर पर हल्के से छूते हैं. जिसे कुमाऊंनी में ‘ताव लगाना’ भी कहा जाता है. मान्यता है कि इससे रोग दूर होते हैं.

स्याल्दे बिखौती मेला और ‘ओढ़ा’ की कहानी

पाली पछाऊं क्षेत्र में बिखौती का असली रंग तब दिखता है जब विभांडेश्वर मंदिर से स्याल्दे बिखौती मेले की शुरुआत होती है. इस दौरान लोकवाद्य-यंत्रों के साथ चिमटे की थाप पर एक दूसरे का हाथ थाम कर कदम से कदम मिला के उत्तराखंड के लोक गीत गाकर नृत्य करते हैं. इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण है ‘ओढ़ा भेंटने की रस्म’. कहा जाता है कि शीतलादेवी मंदर से पूजा कर लौटते वक्त दो गांवों के दलों में खूनी संघर्ष हुआ था, जिसमें एक दल के सरदार का सिर काट दिया गया. जहां उसका सिर गाड़ा गया, वहां एक पत्थर रखा गया. यही पत्थर आज ओढ़ा कहलाता है.उसी पर वार करके दल आगे बढ़ते हैं. आल, नज्यूला और खरक इस परंपरा में हिस्सा लेते हैं. कभी यहां बग्वाल (पाषाण युद्ध) भी होता था, जैसे देवीधुरा में होता है. लेकिन समय के साथ अब सिर्फ ओढ़ा भेंटने की रस्म रह गई है.

क्यों कहते हैं इसे ‘बुढ़ त्यार’

कहा जाता है कि सूर्य देव के उत्तरायण के दौरान यह अंतिम त्यौहार होता है. बिखौती उत्सव के बाद लगभग 3 महीने तक कोई और त्यौहार नहीं आता. 3 महीने बाद हरेला मनाया जाता है, पर तब तक सूर्य देव दक्षिणायन हो गए होते हैं. सूर्यदेव के उत्तरायण के दौरान बिखौती अंतिम त्यौहार होता है. इसलिए इसे बुढ़ त्यार के नाम से भी जाना जाता है. आज बदलते समय के साथ यह मेला अपने मूल रंग-रूप को खोता जा रहा है. एक दौर था जब यह मेला संस्कृति के साथ-साथ व्यापार का भी केंद्र था. लेकिन आज स्याल्दे बिखौती मेला केवल कुमाऊंनी गीतों और किस्सों में ही ज़िंदा है।

Tags: 'Budh Tyar' festival in uttarakhandHow is Bikhauti celebrated?Why do we celebrate Bikhauti?Why is Bikhauti called 'Budh Tyar'Why is Bikhauti celebrated
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