पत्थरों के बजाय फल और फूलों से केवल सात मिनट खेली गई बग्वाल
चंपावत। रक्षा बंधन के मौके पर चंपावत के देवीधुरा में खेली जाने वाली ऐतिहासिक बग्वाल (पत्थर युद्ध) इस बार मात्र सात मिनट तक खेली गयी। इस बार बग्वाल पर कोरोना महामारी की असर साफ साफ दिखायी दिया। बहुत कम योद्धा देवीधुरा के ऐतिहासिक खोलीखांड दूबचौड़ में रण में उतरे। इस बार बग्वाल की खासियत रही कि पत्थरों के बजाय फल और फूलों से खेली गयी।
हर साल की तरह इस बार भी गहड़वाल, चमियाल, बालिग व लमगड़िया खाम के रणबांकुरों में बग्वाल खेलने को लेकर काफी उत्साह दिखायी दिया लेकिन पुलिस व प्रशाासन की कड़ी चौकसी में दोनों ओर से मात्र नाम मात्र के रणबांकुरों को ही रण में उतारा गया। रण शुरू होने से पहले गहड़वाल खाम के रणबांकुरों ने मंदिर की परिक्रमा की। सभी खामों के रणबांकुरों की ओर से मां बाराही की पूजा अर्चना के बाद पुजारी के जयघोष के साथ बग्वाल शुरू हुई।
रणबांकुरों ने पत्थर के बजाय एक दूसरे पर फल व फूलों की बरसात की। ठीक सात मिनट के बाद मंदिर के पुजारी ने शंख बजाकर बग्वाल रोकने के आदेश दिये। इसके बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिले। पुलिस-प्रशाासन ने भीड़ और कोविड महामारी को देखते हुए काफी चाक चौबंद व्यवस्था की थी।
यहां बता दें कि रक्षाबंधन के मौके पर जब पूरा देश भाई बहिन के प्यार में डूबा रहता है वहीं इस दिन उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के देवीधुरा में बग्वाल खेलने की परंपरा है। चार खामों के वीरों के बीच बग्वाल खेली जाती है। पहले पत्थरों से जमकर बग्वाल खेली जाती थी लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश पर यहां फल-फूलों से बग्वाल खेली जाने लगी है।
यह भी मान्यता है कि जब तक एक आदमी के बराबर खून न गिर जाये। तब तक बग्वाल खेलने की परंपरा है। मंदिर के पुजारी के निर्देश पर ही बग्वाल शुरू और बंद होती है। बग्वाली वीरों को इस दौरान पवित्रता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।
चार खाम के लोग अपनी आराध्य मां बाराही को प्रसन्न करने के लिये बग्वाल खेलते हैं। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार मां बाराही को खुश करने के लिये पहले चार खामों की जनता की ओर से हर साल नरबलि दी जाती थी। एक बार एक वृद्धा के घर में उसका पौत्र ही अकेला बच गया। इसके बाद वृद्धा ने मां बाराही की तपस्या की और यहीं से बग्वाल की परंपरा शुरू हुई। इस मौके पर देश के अन्य राज्यों से भी हजारों लोग देवीधुरा पहुंचते हैं और बग्वाल के साक्षी बनते हैं।